Shree Laldasji Krut - Shree Bitak Sahab

श्री बीतक कथा के आरंभ में मूल पाठ - अथ शास्त्र की सा्क्षी आती है जिसमे सतजुग के राजा, त्रेताजुग के राजा, द्वापरजुग के राजा, कलिजुग के राजा का वर्णन आता हैं। इसके पश्चात महाकारण का वर्णन हैं। आइये महाकारण के बारे में जाने।
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अब कहों फेर के, मूल मिलावे की बीतक ।
जैसी आग्या धनी की, सो बातां बुजरक ॥ २/१

अर्थ: अब मैं परमधाम की विशेष बैठक - मूलमिलावा की लीला का वर्णन करता हूं। वहां प्रियतम परमात्मा अक्षरातीत ब्रह्म की जैसी आज्ञा हुई, वह चर्चा महान है। 

पेहेले मूल अद्वैत में, भोम जहां इसक ।
तहां प्रेम रबद में, भया हुकम हक ॥ २/२

अर्थ: सर्व प्रथम सच्चिदानंद ब्रह्म की अद्वैत प्रेममयी भूमिका - परमधाम के मूल मिलावे में ब्रह्म और ब्रह्मस्रुष्टियों में प्रेम सम्वाद हुआ। उसी परिसम्वाद के फलस्वरूप पू्र्णब्रह्म परमात्मा ने आदेश दिया।



यह खेल देखन की, इच्छा उपजाई दोय । 
अछर और सैयन को, आदि अनादि फल कह्यो सोय ॥ २/३

अर्थ: प्रियतम परमात्मा ने अक्षरब्रह्म के मन में, ब्रह्मात्माओं का अखण्डान्द एवं ब्रह्मात्माओं के मन में नश्वर दु:ख देखने की इच्छा उ्त्पन्न की। इसी इच्छा के फल = आदि - अनादि = महाकारण के कार्य स्वरूप स्रुष्टि रचना हुई । 

ताके तीन तकरार कहे, सो भये तीनों इण्ड । 
ताकी बीतक जुदी - जुदी, माया मिथ्या नट ब्रह्मांड ॥ २/४

अर्थ: उस अक्षरब्रह्म की स्रुष्टि, जिसमें रूहों के अवतरीत होने की रात्रि को कुरान में लैलतुल - कद्र की रात की संज्ञा दी गई है। उसके तीन भागों के ब्रज, रास और जागनी तीन ब्रह्मांड हुए। उन तीनों ब्रह्मांड के प्रुथक प्रुथक व्रुतान्त हैं। ये जगत माया द्वारा निर्मित, नट वि्ध्या के समान मिथ्या है।

पेहेले अग्यारे बरस, और ऊपर बावन दिन ।
काल माया ब्रह्मांड में, खेले मिल निज जन ॥ २/५ 

अर्थ: सर्व प्रथम ग्यारह वर्ष और बावन दिन कालमाया में ब्रज लीला हुई। जिसमें मूल सम्बन्धी ब्रह्म ब्रह्मस्रुष्टियों ने मिलकर गोपी और क्रुष्ण के रूप में विभिन्न लीलाएं की।

ता पीछे आये रास में, इण्ड जोगमाया जाग्रत ।
तहां विरह विलास दोऊ, देख के फिरे इत ॥ २/६

अर्थ : ब्रज की लीला के उपरान्त ब्रह्मात्माएं योगमाया द्वारा रचित चिन्मय ब्रह्माण्ड व्रुंदावन में पहुंची। वहीं रास लीला में प्रियतम के माध्यम से परमधाम के अखंड आनन्द की अनुभूति हुई। पुन: श्री क्रुष्ण के अन्तर्धान हो जाने पर विरह दु:ख का अनुभव किया ।

ब्रज रास दोऊ अखण्ड, कर चेतन बुध फिरे मन ।
ए ब्रह्मांड तीसरा, जहां महंमद आये रोसन ॥ २/७

अर्थ : जब पूर्ण ब्रह्म परमात्मा ने अपना जोश खींच लिया तब कह्स्र ब्रह्म ब्रज तथा रास का स्मरण करने लगे। उनकी चेतन बुद्धि में रास और चित्त में ब्रज लीला की स्म्रुति अंकित हो जाने से अखंड हो गई। पुन: त्रुतीय ब्रह्मांड की स्रुष्टि हुई। इसमें परमात्मा के आदेश स्वरूप मुहम्मद ने ज्ञान का प्रकाश फैलाया। 

रास लीला खेल के, आये बरारब में । 
तहां बात सब जाहेर करी, चला मारग इनसे ॥ २/८

अर्थ : रासलीला खेल कर श्री क्रिष्ण, मुहम्मद साहिब के रूप में अरब देश में प्रकट हुए। उन्होंने कुरान में इमाम और कयामत की बात को प्रकट किया। वही इस्लाम की शराअ का मार्ग चला।

छै दिन कुरान में, वाके भये जब ।
ता दिन की हकीकत, सारी छिप कही तब ॥ २/९

अर्थ " कुरान में छ: दिन में घटित होने वाला प्रसंग आया है। तब उन दिनों का सम्पूर्ण व्रु्तान्त गुप्त रूप से संकेतों में वर्णन किया गया। 

तामें एक दिन ब्रज में, दूसरे दिन रास ।
एक रात तहां खेले, देखे विरह विलास ॥ २/१०

अर्थ : उक्त छ: दिनों में पहले दिन के अन्तर्गत ग्यारह वर्ष और बावन दिन तक ब्रज की लीला हुई। दूसरे दिन योगमाया के ब्रह्माण्ड में एक अखंड रात गोपी - क्रुष्ण रूप में रासलीलाएं की। रासलीला क्र माध्यम से परमधाम के ब्रह्मानन्द की अनुभूति की, किन्तु श्री क्रिष्ण के अन्तर्धान हो जाने पर विरह का अनुभव भी प्राप्त किया।

मनोरथ पीछे रहे, तब तीसरो भयो इण्ड ।
तामें आये बरारब, आमर फैलाया ब्रह्मांड ॥ २/११

अर्थ : ब्रह्मस्रुष्टियों के मन में दुख का खेल देखने की चाह शेष रही। इस मनोकामना को पूर्ण करने के लिए तीसरे - जागनी के ब्रह्माण्ड की रचना हुई। उसमें श्री क्रुष्ण, मुहम्मद साहब के रूप में अरब देश में प्रकट हुए। उन्होंने परमात्मा का आदेश समस्त संसार में फैला दिया। 

यह है दिन तीसरा, रहे साठ बरस और तीन ।
रब्वानी कलाम ल्याय के, सब को दिया यकीन ॥ २/१२

अर्थ : मुहम्मद साहब का जीवन काल ही तीसरा दिन है। वे तिरसठ वर्ष संसार में रहे। पूर्णब्रह्म परमात्मा के वचन कुरान के रूप में लाये और लोगों के मन में परमात्मा के प्रति विश्वास उत्पन्न किया।

यह कथा बोहोत है, विस्तार नहीं सुमार ।
पर चौथे दिन की, सैयां करो विचार ॥ २/१३

अर्थ : यह तीसरे दिन की लीला तो बहुत बडी है जिसका विस्तार से वर्णन नहीं हो सकता। ब्रह्मात्माओं की चौथे दिन की लीला का वर्णन ध्यान से सु्नो और उस पर विचार करो। 

जब महंमद की, नव सदी बीतक ।
सवा नव बाकी रहे, दसमी के बुजरक ॥ २/१४

अर्थ : मुहम्मद साहब को संसार से गये हुए नौ सौ नब्बे वर्ष और नौ माह हो गये, तब महिमावान दसवीं शदी पूर्ण होने में सवा नौ वर्ष अर्थात नौ वर्ष तीन माह शेष थे।

साल नव सै नब्बे मास नौ, हुये रसूल को जब ।
रूह अल्लाह मिसल गाजियों, सैयां उतरे तब ॥ २/१५


अर्थ : जिस समय मुहम्मद साहिब को संसार से गए नौ सौ नब्बे वर्ष और नौ माह हो गये, उसी समय परमात्मा की आत्मा आनन्द अंग श्यामा महाराणी, श्री देवचन्द्रजी के रूप में, धर्म पर न्यौछावर होनेवाली अन्य ब्रह्मात्माओं के स्मुदायों के साथ संसार में अवतरित हुए ।

सम्वत सोलह सै अडतीसे, आसौज सुदी चौदस को ।
जन्मदिन श्री देवचन्द्रजी, आए प्रगटे मारवाड मो ॥ २/१६

अर्थ : विक्रम संवत सोलह सौ अडतीस (१५८१ ई.) के आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की चौदहवीं तिथि, श्री देवचन्द्रजी का जन्म दिवस है। वे मारवाड प्रदेश में अवतरीत हुए।

तामें गाम उमरकोट, मत्तू मेहता घर अवतार ।
माता जो कुंअरबाई, ताको कहों विस्तार ॥ २/१७

अर्थ : उमरकोट गांव में श्री मत्तू मेहता के घर श्री देवचन्द्र जी का अवतार हुआ। उनकी माता धर्म पारायण श्रीमती कुंवरबाई थीं। स्वामी लालदासजी कहते हैं कि मैं उन्हीं अवतारी पुरूष की कथा का सविस्तार वर्णन करता हूं।



जब जन्मे मारवाड में, घर अति आनंद नरनार ।
यह बधाई ब्रह्मांड में, त्रिगुण समेत विस्तार ॥ २/१८

अर्थ : जब श्री देवचन्द्र जी का मारवाड में जन्म हुआ, तब घर में नर - नारीगण सभी अत्यन्त आनन्दित हुए। यह मंगल बधाई त्रिगुणाधिदेव - ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैल गई।

सुखदाई सबन को, अखण्ड करनहार ।
विस्व वन्दे अछर लों, सुके प्रीछत सों कह्यो विचार ॥ २/१९

अर्थ : श्री देवचन्द्र जी का अवतार सम्पूर्ण संसार में लोगों को अखंड आनन्द की अनुभूति कराने वाला है। शुकदेव मुनि ने श्री मदभागवत में अपने विचार राजा परीक्षित से अभिव्यक्त किये कि संसार के भक्त लोग, अक्षर ब्रह्म तक की उपासना करते हैं। ब्रह्मस्रुष्टि उससे परे अक्षरातीत की अराधना करती हैं।

साक्षी श्लोक
देवापि: शन्तनोर्भाता, मरूश्चेक्ष्वाकुवंशज : ।
कलाप ग्राम आसाते, महायोग्बलान्वितौ ॥
ताविहैत्य कलेरन्ते वासुदेवानुशिक्षितौ ।
वर्णाश्रमयुतं धर्म पूर्ववत प्रथयिष्यत: ॥

अर्थ : *इस समय ्शान्तनु के भाई देवापि और इक्ष्वाकु कुलोदभव महाराज मरू महान योगबल से युक्त कलाप ग्राम में स्थित हैं। 
ये दोनों कलि के अन्त में यहां आकर श्री वासुदेव भगवान की प्रेरणा से वर्णाश्रम युक्त धर्म की पहले की भांति स्थापना करेंगे । 
(भागवत स्कंध १२/२/३७, ३८)
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सतजुग के बीच भूत, इनो बीच रहे विस्तार ।
होवे सब में जाहेर, अखंड ए संसार ॥ २/२०

अर्थ : श्री देवचन्द्र जी के स्वरूप में सतयुग के बीज का विस्तार समाहित रहा। इन्हीं स्वरूप के अन्दर ब्रह्मलीला का रहस्य समाया हुआ हैं। इनके द्वारा ब्रह्मलीला संसार में प्रकट होगी। तब यह संसारी - विश्व के जीव अमर - पद प्राप्त करेंगे। 

सोई वेद कतेब में , इनों की लिखी साख ।
और उपनिसद भागवत में, लिखी वाणी कै लाख ॥ २/२१

अर्थ : इसकी साक्षी वेद, पुरान, उपनिषद और भागवत एवं कतेब तौरेत, जबूर, अंजील, आदि अनेक धर्म ग्रन्थों में लाखों प्रकार के संकेतों एवं रहस्यमय शब्दों में लिखी है। वेद और कतेब में इनकी ही साक्षी दी गई है और उपनिषद भागवत में इन्हीं की साक्षी अनेक रूपों में लिखी गई ।

जब को ये ब्रह्माण्ड, तब के एह वचन ।
जनम से ले बीतक, जाके सुने पतीजे मन ॥ २/२२

अर्थ : जब से इस संसार की रचना हुई, तभी से प्रकट होने वाले अनेक धर्म ग्रन्थ में, बुध अवतार होने के संब्ंध में भविष्य वाणी लिखी हैं। श्री देवचन्द्र जी के जन्म से लेकर सम्पूर्न जीवन व्रुतान्त देखकर व श्रवणकर मन में विश्वास उत्पन्न होता है। 

ताके ग्रन्थ भासा मिने, आप अपने किये सब ।
एक मिलाय खोल दीजिए, ए वस्तु पावे तब ॥ २/२३

अर्थ : अनेक भाषाओं में लिखे गए धर्मग्रन्थों में लोगों ने अपने अपने ढंग से ब्रह्मलीला विषयक भविष्यवाणी को अभिव्यक्त किया। उन ग्रन्थों में वर्णित तथ्यों को मिलाकर प्रकट किया जए, तो ब्रह्मस्रुष्टियों के अवतरित होने का कारण स्पष्ट हो जाता है एवं अखंड वस्तु - ब्रह्मज्ञान पाया जा सकता है।

सोई सरत कुरान में, लिखी एक सौ बीस बरस ।
चार पांच छठा दिन, तब जाहेर होवे अरस ॥ २/२४

अर्थ : वही नियत समय कुरान में एक सौ बीस वर्ष कयामत के लिए निश्चित किए गए। जिस समय चौथे दिन (श्री देवचन्द्र जी का जीवन काल), पांचवे दिन ( श्री मेहराज ठाकुर का जागनी अभियान) तथा छठे दिन पन्ना में परमधाम की लीला का रहस्य प्रकट होना। उस समय संसार के लोगों ने ब्रह्मलीला के दर्शन किये। 

सब स्रुष्टि सेजदा करे, होवे अखंड जाहेर धाम ।
जो याद नहीं अछर को, सो सुध सबों हुई तमाम ॥ २/२५

अर्थ : कयामत - आध्यात्मिक जागनी के समय जब परमधाम की लीला - ब्रह्मलीला को महाप्रभु श्री प्राणनाथ जी प्रकट करेंगे, तब समस्त संसार के लोग उन पर विश्वास करके नमन करेंगे। अक्षरातीत ब्रह्म की जिस किशोर लीला का ज्ञान अक्षर ब्रह्म को नहीं था, उसका प्रत्यक्ष रूप से सबने साक्षात्कार किया।


जो द्रस्ट सुपन जीव की, नही लखी मिने लगार ।
सो द्रस्ट अखण्ड सुख में, पोहोंची नूर के पार ॥ २/२६

अर्थ : स्वप्नवत संसार के लोगों की सीमित द्रुष्टि, परमधाम की ब्रह्मलीला को लेशमात्र भी नहीं देख पाती। वही द्रुष्टी तारतम ज्ञान पाकर अक्षर से परे परमधाम के अखण्ड - आनन्द में जा पहुंची।

यह सुध जो ले आये, रूहल्लाह चौथे आसमान ।
तिन सेती प्रापत भई, त्रिगुण स्रस्ट पेहेचान ॥ २/२७

अर्थ : चौथे आसमान - लाहूत - परमधाम की पहचान कराने के लिए तारतम ज्ञान लेकर आने वाले स्वरूप, परमात्मा की आनन्द अंग श्री श्यामा जी - रूहअल्ला के अवतार श्री देवचन्द्र जी हैं। उस ज्ञान से संसार के लोगों को त्रिगुणमयी स्रुष्टि की पहचान हुई तथा परमात्मा का ज्ञान भी मिला।

तिन सरूप की बीतक, जनम से लेकर ।
सो कहों आगे सौयनों, ए चरचा सब ऊपर ॥ २/२८

अर्थ : उन्हीं आनन्द स्वरूप श्री देवचन्द्र जी के समग्र जीवन व्रुत्त की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन, हम अपने साथियों के समक्ष करते हैं। यह चर्चा अन्य सभी ज्ञान वार्ताओं से विशिष्ट है।

जब वय वरस अग्यारमां, तब मन उपजो विचार ।
मैं कौन कहां थे आइया, कहां मेरो भरतार ॥ २/२९

अर्थ : जब उनकी आयु ग्यारह वर्ष की हुई, तब से मन में एसे विचार आने लगे "मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? मेरी आत्मा का प्रियतम कौन है ?


पूछत फिरे तिन देश में, कहां है परमेस्वर ।
जिन सबको पैदा किया, सो कहां है सब ऊपर ॥ २/३०

अर्थ : श्री देवचन्द्र जी उमरकोट के आसपास विभिन्न स्थानों में जाकर पूछते कि परमात्मा कहां रहता है ? जिसने सबको उत्पन्न किया, वह परमात्मा सबसे ऊपर कहां है ?

कोई कहे वह घट घट, है व्यापक संसार ।
तब जान्या वह निकट, येही ग्रहों मैं सार ॥ २/३१

अर्थ : कुछ लोग कहते हैं कि वह प्रत्येक प्राणी के शरीर में विध्यमान होने से सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है। एसा सुनकर उनकी समझ में आया कि परमात्मा तो अति निकट है। इसी सर्वोत्तम सिद्धान्त को सार रूप में ग्रहण कर, उसे खोज लेना चाहिए।



एक देहुरा तहां रहे, तामें मूरत पिंगल स्याम ।
आगे यहां बिराजते, दै परदछिना इस ठाम ॥ २/३२

अर्थ : वहीं उमरकोट में एक देव मन्दिर था, जिसमें पिंगल श्याम की मूर्ति स्थापित थी। प्रतिदिन श्री देवचन्द्र जी परिक्रमा करके मूर्ति के सम्मुख विराजमान हो जाते।

ले लोटा घर से चले, दन्त धावन के काज ।
सुद्ध आकार करके फिरें, आवे न मन में लाज ॥ २/३३

अर्थ : दातौनादि नित्य - क्रिया से निव्रुत्त होने के लिए घर से लोटा लेकर चलते। शारीरिक शुद्धि के पश्चात लौटने पर मन्दिर दर्शानार्थ अबश्य जाते। उनके मन में किसी प्रकार का संकोच नहीं होता था।

नित्य इत प्रदछिना, देवे एक पोहोर ।
फेर दंडवत करते, मेहनत करे अति जोर ॥ २/३४

अर्थ : प्रतिदिन मन्दिर में एक प्रहर तक परिक्रमा करके, श्री क्रुष्ण की प्रतिमा के समक्ष साष्टांग नमन करते। इस प्रकार परमात्मा प्राप्ति के लिए अत्यधिक साधना करते।

उस देश में साधु सन्त, आवत नाहीं कोय ।
जल कसनी देखके इत, काहू न आवन होय ॥ २/३५

अर्थ : उस क्षेत्र में कभी भी किसी सन्त - महात्मा का आगमन नहीं होता था। मरूभूमि में पानी का अभाव होने के कारण, कोई साधुजन वहां आने का साहस न जुटा पाते थे।



एक बेर मत्तू मेहता संग, आए हते कच्छ देस ।
तहां देहुरे साधु बोहोत, देखे बीच विदेस ॥ २/३६

अर्थ : श्री देवचन्द्र जी एक बार अपने पिता मत्तू मेहता के साथ कच्छ प्रदेश आए थे। वहां उन्हें सन्त - महात्माओं का समागम और अनेक मन्दिर देखने को मिले। 

ात तब की मन में रहे, मैं जाऊं कच्छ में ।
तहां जाय के खोज करोम, पाऊं परमेस्वर तिन से ॥ २/३७

अर्थ : उस समय की बात उनक मानस पटल पर अंकित हो गैइ। वे सोचते रहे कि मुझे कच्छ जाना चाहिए। वहीम पहुंचकर परमात्मा की खोज करेंगे। साधु - संतों के समागम से प्रभु प्राप्ति सुलभ होगी।



घर में खटपट रहे, मन में रहे वैराग ।
दुनी से वैर रहे, उन्हें देखे लगे आग ॥ २/३८

अर्थ : मन में वैराग्य भावना जाग्रत होते ही, घर में माता - पिता से कुछ खटपट - अनबन भी होने लगी। संसार से वैर हो गया। सांसारिक व्यवहार एवं क्रिया - कलापों को देखते ही उन्हें क्रोध आ जाता था।

दै सिखापन बोहोतक, कर कर थके सब कोय ।
ए फिराए ज्यों फिरे, कहे समझावें सोय ॥ २/३९

अर्थ : उन्हें किसी तरह समझाने के लिए, सब लोगों ने अनेक प्रयत्न किये, किन्तु असफल रहे। वैराग्य भावना से उन्हें विचलित करने के लिए सभी संभव प्रयास किये गए, फिर भी वे संसार की ओर आक्रुष्ट नहीं हुए।

श्री देवचन्द्र जी के मन में, जाऊं कहूं विदेस ।
तहां जाय के खोज करों, कोई मोहे दे उपदेस ॥ २/४०

अर्थ : श्री देवचन्द्र जी के मन में एक ही धुन सवार थी कि मैं किसी और देश चला जाऊं। वहीं पहुंचकर परमात्मा की खोज करुंगा। वहां कोई तो मुझे उपदेश प्रदान करने वाला मिल ही जाएगा।

पूछ्त फिरे सब ठौरों, कोई मुझे बतावे राह ।
या समय राजा उमरकोट का, ताको बजीर जाय ताह ॥ २/४१

अर्थ : सर्वत्र पूछते फिरते रहे, कि कोई मुझे क्च्छ देश जाने का मार्ग बता दे। इसी समय उमरकोट के राजा का वजीर भोजनगर जा रजा था।



खांडा विवाहने को, जाता था कच्छ में । 
दो सै असवार एक बहल, उतावले पोहोंचने ॥ २/४२

अर्थ : राजा की तलवार लेकर विवाह करने की प्रथा के अनु्सार वजीर खाडा बारात लेकर कच्छ जा रहा था। उसके साथ दो सौ ऊंटसवार और एक बग्धी भी थी ताकि वह शीघ्रता से पहुंच सके।

श्री देवचन्द्र जी ने सुनी, गए पूछ्ने तिन से ।
तिन वजीर सों बातें करीं, हम कच्छ जायेंगे ॥ २/४३

अर्थ : यह बात श्री देवचन्द्र जी ने सुनी, तो साथ जाने के लिए पूछने गए। उस वजीर से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि मुझे भी क्च्छ जाना है।

तभ पूछा उनने, क्या असवारी तुमारे ।
हम संग क्यों पोहोंचोगे, प्यादे असवारों के ॥ २/४४

अर्थ : तब वजीर ने पूछा कि तुम्हारे पास सवारी के लिए क्या है ? तुम हमारे साथ पैदल कैसे पहुंचोगे ?

तब कह्या श्री देवचन्द्र जी, हम चले आवेंगे ।
तब उनने बरजे, जिन आओ संग हमारे ॥ २/४५

अर्थ : तब श्री देवचन्द्र जी ने कहा कि हम आपके पीछे - पीछे पैदल चले आएंगे। तब वजीर ने रोकते हुए कहा, कि तुम हमारे साथ मत आना।

तब श्री देवचन्द्र जी विचारिया, मैं काहे पूछों इनें ।
पीछे चला जाऊंगा, अपने पांवो सें ॥ २/४६

अर्थ : उस समय श्री देवचन्द्र जी ने विचार किया कि मैं इनसे क्यों पूछूं ? बारात के पीछे पदचिह्नों को देखकर अपने पांव से चलकर पहुंच जाऊंगा।



घरों जाय के साज को, राह की लेने लगे ।
थारी कटोरा लोहंडा, और लोटा जल के ॥ २/४७

अर्थ : घर लौटकर यात्रा के लिए सामग्री जुटाने लगे। थाली, कटोरा, छोटी कढाही तथा पानी के लिए लोटा भी रख लिया।

एक नीमचा कमर को, और कपडे पहनन के ।
बकुचा बांध तैयार भये, खरची बांधी तिन में ॥ २/४८

अर्थ : कमर में कटारी बांध ली। पहनने के लिए कपडे रख लिये। सब सामान पोटली में बांधकर तैयार हुए। उसी गठरी में खर्च के लिए कुछ पैसे भी रख लिये।

ले प्रसाद पौढ रहे, पीछला दिन रह्या घडी चार ।
वे साथ असवार भये, ए करने लगे विचार ॥ २/४९

अर्थ : परमात्मा का प्रसाद रूप भोजन करके लेट गए। जब चार घडी अर्थात डेढ घण्टे दिन शेष रहा, तो बारात के लोगों ने प्रस्थान किया। इधर वे घर से निकलने की युक्ति सोचते रहे।

कमर बांधते बांधते, कछू ढील हो गई इत ।
वे असवार चले गये, ए पीछे चले जाये तित ॥ २/५०

अर्थ : छिप - छिप कर सामान कमर में बांधते हुए, निकलने के लिए कुछ विलम्ब हो गया। इतने में बारात के सवार निकल गये। फिर भी वह बारात के पीछे गन्तव्य की ओर चल पडे।

चले अति उतावले, मनमें पोहोंचों धाय ।
वे असवार ये प्यादे, क्यों कर पोहोंचों जाय ॥ २/५१

अर्थ : बारात के साथ पहुंचने के लिए वह शीघ्रता से चल रहे थे। मन में विचार था, कि दौडकर उनके साथ हो जाऊं। वे सवार थे और यह पैदल, साथ - साथ पहुंचना कैसे संभव था ?



यों करते चले गये, बीच पडी आय रात ।
ए मुलक रेतीय का, किन सों करे बात ॥ २/५२

अर्थ : इस प्रकार, चलते - चलते रात्रि हो गई। मरूभूमि में रेत के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता था। ये किससे बात करते, कोई भी तो वहां नहीं था।

तहां चली राह न पाइये, भय चोरन का जोर ।
एक दोय निबाह न सके, है इन भांत का ठौर ॥ २/५३

अर्थ : उस मरूभूमि में लोगों के चलने से बनी हुई राह भी नहीं रह पाती। हवा चलने से पदचिन्ह मिट जाते। चोरों का भय होने के कारण एक दो व्यक्ति अपनी रक्षा नहीं कर पाते थे। इस प्रकार का असुरक्षित मरू प्रदेश है।

एक ढेर वायु धरे उठाए, खडा करे तरफ और ।
फेर तहां वायु लगे, ढेर लगे और ठौर ॥ २/५४

अर्थ : मरूस्थल की तेज आंधियां रेत के एक ढेर को उडाकर अन्यत्र रख देती हैं। फिर हवा चलने पर वह रेत का ढेर दूसरे स्थान में लग जाता है।


वय बालक मन दहसत, पेट में उठा दरद ।
ना जाने आगे पीछे, है कौन जागा सरहद ॥ २/५५

अर्थ : बाल्यावस्था होने से वे भयभीत हो गये। डर के कारण पेट में दर्द होने लगा। मन में विचार करने लगे कि इस स्थान से आगे - पीछे जाने का मार्ग या मरूभूमि की सीमा कहां हैं ?

यों करते चले जाते, एक सख्स दिया दीदार ।
तब बडी दहसत भई, एसो आयो विचार ॥ २/५६

अर्थ : इस प्रकार घबराये से चले जा रहे थे कि एक व्यक्ति ने दर्शन दिये। उन्हें देखकर वे बहुत ही डर गये और उनके मन में अनेक विचार उत्पन्न हुये।

ए चोर मोको मारेगा, नहीं बचने का ठौर ।
मेरा कछु न चल है, मुझ गई दिस और ॥ २/५७

अर्थ : उन्होंने सोचा, यह मुझे मार देगा। इनसे अपनी रक्षा करने का कोई उपाय या ठिकाना नहीं है। ऐं अपनी रक्षार्थ कुछ भी नहीं कर पाऊंगा। उन्हें गन्तव्य दिशा ही विस्म्रुत हो गई।

इतने में आए गया, होए गई मुलाकार ।
देखत ही दहसत भई, वह कहने लगा बात ॥ २/५८

अर्थ : इतने में वह व्यक्ति समिप आ गया। उनसे इनकी भेंट हो गई। उसके स्वरूप को देखते ही ये सहम गये। वह पुरूष इनसे इस प्रकार बातें करने लगा।

यह भेस सिपाही का, कमर कटारी तलवार ।
मुंह दाढी हाथ बरछी, एसा भेस ल्यावनहार ॥ २/५९

अर्थ : मानव देहधारी वह दिव्य पुरूष सिपाही भेष में था। उसकी कमर में कटार व तलवार थी तथा मुंह पर दाढी एवं हाथ में बरछी थी। एसा अदभुत स्वरूप उस आनेवाले पु्रूष का था।

मुख से आये वचन कहे, छोडो कमर तलवार ।
मुंह मूंदा दहसत से, कछू न आया विचार ॥ २/६०

अर्थ : आते ही उसने कहा, कि कमर से तलवार खोलकर दे दो। यह सुनकर उनका मुंह भय के कारण बन्द हो गया। वे कुछ भी कहने की हिम्मत न जुटा पाये।

तुरत तरवार छोड के, दई हाथ में " श्री राज "।
कह्या छोद तू गांठडी, ए बातें देखी इन काज ॥ २/६१

अर्थ : उन्होंने तुरन्त तलवार खोलकर सिपाही के रूप में श्री राज के हाथ में दे दी। जब उसने गठरी छोड देने को कहा, तब ये विचार करने लगे कि उसका उद्रेश्य यही था।

तब जाना मुझे मारेगा, उनने कहे सुकन ।
बिछाय पिछौडी सुवाये, तब कांपने लगा मन ॥ २/६२

अर्थ : अब तो इन्हें निश्चय हो गया कि यह मुझे अवश्य मार डालेगा। इतने में उसने अपनी पिछौरी बिछाकर उस पर लेट जाने की आज्ञा दी। यह सुनकर इनका मन कांपने लगा।

बरछी हाथ पकड के, एक साथल पर दे पाय ।
बोझ दिया सरीर का, फेर यों कर पू्छयो जाय ॥ २/६३

अर्थ : उस पुरूष ने हाथ की बरछी धरती पर टेककर, उनकी जांघ के जोड में पांव रखकर, शरीर का बोझ डाला। फिर इस प्रकार हाल पूचा -

दरद भया कछू हलका, सूल पेट का था जोर ।
श्री देवचन्द्र जी उत्तर दिया, कछू रह्या और ठौर ॥ २/६४

अर्थ : "क्या पेट का दर्द कुछ कम हुआ ?" उनके पेट में जो असहनीय पीडा थी, वह कुछ कम हुई। श्री देवचन्द्र जी ने उत्तर दिया कि थोडा दर्द दूसरी ओर अब भी शेष है।

फेर दूसरी जांघ मूल में, दे पांव खडे रहे ।
बोझ दिया सरीर का, इन सरीर पर दे ॥ २/६५

अर्थ : तब वह पुरुष इनकी दूसरी जांघ के मूल में अपना पैर रखकर खडा रहा। अपना तनिक शारीरिक बोझ इनके शरीर पर डाला।
फेर पूछा क्या खबर, सूल मिता आकार ।
तब उठ ठाडे भये श्री देवचन्द्र जी, एसा किया विचार ॥ २/६६

अर्थ : दिव्य पुरुष ने पूछा, " अब पेट का दर्द कैसा है ? " पेट की असहनीय पीडा मिटते ही श्री देवचन्द्र जी उठकर खडे हो गये और कुछ सोचने लगे।


पिछौडी कमर बंधाय के, बोझ बांधा अपनी पीठ पर ।
तब जान्या देवचन्द्र जी, ए मारे नहीं क्योंए कर ॥ २/६७

अर्थ : आवेशयुक्त पुरूष ने अपनी चमत्कारी पिछौरी, उनकी कमर में बांध दी। उनकी पोटली अपनी पीठ पर लाद ली। तब श्री देवचन्द्र जी ने सोचा कि निश्चय ही यह अब मुझे मारेगा नहीं।

बन्दीखाने रखके, कराबे गुलाम ।
मारने से तो बचाया, अब क्या करावे काम ॥ २/६८

अर्थ : शायद मुझे अपने आधीन कैद में रखकर मुझसे दास की भांति सेवा कार्य करायेगा। मारने से तो बच गया। अब न जाने क्या - क्या काम कराता है ?

मिल दोऊ वहां से चले, राह में अति जोर ।
लगे बात लौकिक पूछने, कहां कौन तुमारो ठौर ॥ २/६९

अर्थ : दोनों मिलकर वहां से चल पडे। वे अत्यंत तीव्रगति से चल रहे थे। सांसारिक बातें करते हुए उस पुरूष ने पूछा कि तुम्हारा घर कहां है ?

नाम माता का पूछत, और कुटुम्ब परिवार ।
ताको उत्तर देत हैं, चले जाये तिन लार ॥ २/७०

अर्थ : उस असाधारण व्यक्ति ने उनकी माता का नाम पूछा। कुटुम्ब - परिवार वालों के सम्बन्ध में भी प्रश्न किये। देवचन्द्र जी उनका उत्तर देते हुए साथ साथ चले जा रहे थे ।

दे्वचन्द्र उत्तर दियो, रहे उमरकोट गाम ।
मत्तूमेहता जो पिता, करें सौदागरी का काम ॥ २/७१

अर्थ : श्री देवचन्द्र जी ने उत्तर दिया मैं उमरकोट गांव में रहता हूं। मेरे पिता श्री मत्तू मेहता व्यापार करते हैं।

फेर खबर देस की, पूछने लगे सुकन ।
कौन राजा तुम देस को, कैसो ताको चलन ॥ २/७२

अर्थ : फिर उस पुरूष ने उस प्रदेश की राजनीति के विषय में पूछा। कहा कि तुम्हारे देश का राजा कौन है ? उसका प्रजा के साथ व्यवहार कैसा है ?

कौन बजीर ताके रहे, क्योंकर चलत बेहेवार ।
कै एसी बातें लौकिक, एही पूछे विचार ॥ २/७३

अर्थ : उस राजा का वजीर कौन है ? लोगों के साथ व्यवहार कैसा चल रहा है ? इस प्रकार की अनेक सांसारिक बातें पूछीं।




यों करते पूछ्त चले, पन्थ करते जाय ।

रात रही थोडी बाकी, साथ को पोहोंचे धाय ॥ २/७४


अर्थ : इस प्रकार बातचीत करते हुए दोनों मार्ग में आगे बढते चले जा रहे थे। कुछ रात्रि शेष रह जाने तक वे लोग तीव्रगति में बारात के समीप पहुंच गये। 



उस जागा खडे रहे, पिछौडी छुडाई कमर से । 
अपनी पीठ पत गांठडी, सो दई देवचन्द्र जी को इन समें ॥ २/७५

अर्थ : उस पुरुष ने उस जगह रूककर इनकी कमर से पिछौरी छुडवा ली। अपनी पीठ पर रखी हुई गठरी श्री देवचन्द्र जि को लौटा दी। 

दई तरवार छोड के, देख ए तेरो साथ ।
पीछे फेर के देखही, मेरा किनने पकडा था हाथ ॥ २/७६

अर्थ : उनकी तलवार लौटाते हुए बारात की ओर संकेत कर कहा कि देखो, वह रहे तुम्हारे साथी। जैसे ही श्री देवचन्द्र जी ने पीछे मुडकर देखा तो वह स्वरूप दिखाई न दिया। तब विचार करने लगे कि किसने हाथ पकडकर मेरी सहायता की थी ?

वहां तो कछु न देखहीं, कौन कहां गयो येह ।
ए तेहेकीक मेरा खाबन्द, किया विलाप याद कर तेह ॥ २/७७

अर्थ : वहां कुछ भी दिखाई न दिया। वे विचार करने लगे कि वह पुरुष कौन था ? कहां चला गया ? निश्चय ही यही मेरे स्वामी थे । उनका स्मरण कर वे विलाप करने लगे।


फेर के एता विचारिया, मेरे एतो हैं सिर पर ।
जहां कहूं मैं डार हों, ए छोडे नहीं क्योंकर ॥ २/७८

अर्थ : पुन: यह विचार आया कि यही स्वरूप मेरे रक्षक हैं। मेरे ऊपर इन की छत्रछाया है। जहां कहीं मुझ पर संकट आ पडेगा, वे मुझे निरक्षित नहीं छोडेंगे। 

यह तो तहकीक हुआ, धनी है मेरे हाजर ।
भले अब कहां जायेंगे, मैं खोज लेऊं इन पर ॥ २/७९


अर्थ : यह तो निश्चित हो गया कि परमात्मा स्वयं मेरे सहायतार्थ मेरे समीप हैं। भला अब वे कहां जाएंगे ? मैं तो उन्हें खोज ही लूंगा।

तब सन्मुख चले साथ को, आवत टोके तिन ।
कौन है कहां आवत, नाम देवचन्द्र लियो इन ॥ २/८०

अर्थ : तब अपने साथियों की ओर चल पडे। बारातियों ने उन्हें आते हुए देखकर टोका, "तुम कौन हो ? यहां कहां चले आ रहे हो ?" इन्होंने अपना नाम देवचन्द्र बतलाया।

तब ले चले सिरदार पे, उनने पूछे सुकन ।
तुम क्यों आये हमको मिले, बडो अचरज भयो मन ॥ २/८१

अर्थ : बारात के लोग इन्हें सरदार (वजीर) के पास ले गये। उसने इन्हें पहचान कर पुछा कि तुम किस तरह हम लोगों से आ मिले ? हमारे मन में बहुत आश्चर्य हो रहा है।


क्योंकर राह पाई तुम, क्यों पोहोंचे असवारों संग ।
तब जवाब देवचन्द्र जी दिया, हम आए चले जैसे बंग ॥ २/८२

अर्थ : इस मरूभूमि में तुम्हें मार्ग कैसे मिला ? पैदल ही घुडसवारोम के साथ साथ यहां किस तरह पहुंच गये ? तब श्री देवचन्द्र जी ने प्रत्युतर दिया कि हम वायु की भांति तीव्र गति से चलकर आये हैं।

तुमारे पीछे चले आये, कदमों पर धरे कदम ।
पांव अपने बल से, चले मारग आये हम ॥ २/८३

अर्थ : आपके पीछे पीछे आपके ही पदचिह्नोंं के सहारे अपने पैरों के बल चलकर, हम यहां तक आये हैं।

सबों बडो अचरज पाय के, कही खोलो कमर ।
वे पुन डेरा डंडा पछाडी, कोई था आग जलावने पर ॥ २/८४

अर्थ : सभी बारातवालों को आश्चर्य हुआ। वजीर ने कहा कि तुम समान रखकर विश्राम कर लो। वे लोग पडाव की तैयारी कर रहे थे। कोई आग जलाता तो कोई पडाव के डंडे, बांस आदि लगाने का कार्य कर रहा था।

तब उन कायस्थ सिरदार ने, रसोई का किया आदर ।
चाहो तो सीधा लेओ, या आओ रसोई पर ॥ २/८५

अर्थ : कायस्थ जाति के उस सरदार ने इन्हें भोजन के लिए ससम्मान आमंत्रित किया। यदि आप स्वयं भोजन बनाना चाहें तो कच्ची सामग्री ले लीजिए अन्यथा हमारे साथ ही भोजन कर लें।

तब देवचन्द्र जी ने, यों कर दिया जवाब ।
मैं अपने हाथों करतहों, कह्या कायस्थ तिन के बाब ॥ २/८६

अर्थ : श्री देवचन्द्र जी ने उत्तर दिया कि मैं स्वयं अपने हाथों से अपना भोजन तैयार करता हूं। कायस्थ वजीर ने पुन: इस सम्बन्ध में आग्रह किया।

तो हमारे भंडार से, सीधा लेवो तुम ।
तब देवचन्द्र जी ने क्हा, घर से सीधा ल्याए हम ॥ २/८७

अर्थ : "आप हमरे भंडार से भोजन सामग्री ले लीजिए।" इस पर श्री देवचन्द्र जी ने कहा कि हम घर से खाध्य सामग्री साथ लाये हैं।

तब कायस्थ दुख पाय के, कही हमारी नहीं ए रवेस ।
हमारी न्यात को ले हम पे, हो तुम हमारे खेस ॥ २/८८

अर्थ : इस पर दुखित कायस्थ ने कहा कि हमारे यहां एसा रिवाज नहीं है फिर आप तो हमारी ही जाति के हैं। इसलिए आप सीधा अवश्य ले लीजिए।

तब सीधा तिनका लिया, करी रसोई तब ।
जा सरूप को दरसन पायोथो, ताको रसोई आरोगायी सब ॥ २/८९

अर्थ : श्री देवचन्द्र जी ने उनके भंडार से खाध्य सामग्री लेकर भोजन पकाया। जिस स्वरूप ने राह में सिपाही वेष में दर्शन दिए थे, पहले उन्हें भोजन अर्पित किया।

प्रसाद लेके पौढ रहे, फेर के उठे जब ।
उठके गैल चलन को, हुए तैयार सब ॥ २/९०

अर्थ : प्रसाद रूप भोजन ग्रहण करके विश्राम किया। जब उठे तो आगे की राह चलने के लिए सभी बाराती तैयार हो चुके थे ।

तब उन कायस्थ ने, कह्या अपने लोगों को ।
दोय ऊंट पर असवार, केते सामिल हो उन मो ॥ २/९१

अर्थ : उस कायस्थ वजीर ने अपने लोगों से पूछा कि दोनों ऊंटों पर तुम सब मिलकर कितने जन सवार हो ?

तब उनने उत्तर दिया, हम हैं जने चार ।
तब कह्या पांचमा एह तुम, सामिल करो असवार ॥ २/९२

अर्थ : उन लोगों ने उत्तर दिया कि हम चार जनें ऊंटों पर सवार हैं। तब सरदार ने कहा कि पांचवें सवार के रूप में इन्हें भी अपने साथ एक ऊंट पर बिठा लो।

इन भांत देवचन्द्र जी, आय पोहोंचे कच्छ में ।
गये लोग अपने ठौर, आप लगे खोज में ॥ २/९३

अर्थ : इस प्रकार श्री देवचन्द्र जी कच्छ प्रदेश में पहुंच गये। बाराती लोग अपने पूर्व निश्चित स्थान की ओर चले पडे। आप परमात्मा की खोज में लग गये।

महामति कहे ए साथ जी, एह देवचन्द्र जी की बीतक ।
आगे खोज करेंगे, सोय बातें बुजरक ॥ २/९२

अर्थ : स्वाली श्री लालदास जी कहते हैं कि हे साथियों ! श्री देवचन्द्र जी का यह, अब तक का संक्षिप्त जीवन व्रुत्त है। अब हम परमात्मा की खोज के लिए उनके अगले महत्त्वपूर्ण प्रयास एवं महान अभियान की चर्चा करेंगे।
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कच्छ में खोज

अब कहों कच्छ देश की, पोहोंचे आप आये जित ।
तहां आये खोज करी, सोय बताऊं इत ॥ ३/१

अर्थ : श्री देवचन्द्र जी ने कच्छ प्रदेश में पहुंचकर जिस प्रकार की खोज की, उसका कुछ ब्योरा यहां दिया जा रहा है।

लगे खोज करने, बैठे देहुरे जाय ।
चरचा को उत पूछत, वे प्रतिमा को ठहराय । ३/२

अर्थ : खोज करते हुए वे एक देवालय जा पहुंचे। वहांं के महन्त से चर्चा सुनते हुए उन्होंने परमात्मा के सम्बन्ध में प्रश्न किया। वक्ता ने प्रभु प्रतिमा की ओर संकेत करके कहा कि हम तो इन्हें ही परमात्मा मानते हैं।

तहां मन माने नहीं, राह न आवे नजर ।
कोइक दिन रहे तिन में, फेर उठे खोज ऊपर ॥ ३/३

अर्थ : उनके सतसंग में बैठकर इनका मन संतुष्ट न हुआ। वहां उन्हें परमात्मा प्राप्ति का सत्य मार्ग दिखालाई न पडा। कुछ दिन उनके साथ रहकर वे पुन: खोज पर निकल पडे।

आये खोज सन्यासी, हैं बडे डिंभधारी ।
आम पूजे तिन को, आवे खलक सारी ॥ ३/४

अर्थ : अब वे सन्यासियों के बीच पहुंच गये। वे सन्यासी बहुत ही आडम्बर पूर्ण जीवन जी रहे थे। परन्तु उस क्षेत्र में उन्हें बडा सन्मान प्राप्त था। भारी संख्या में लोग उनकी सेवा करने आते थे।

तहां जाय के खोजिया, कहें जानत हैं सब हम ।
देवे नाम सुमरन, नेहेचे कर ग्रहो तुम ॥ ३/५

अर्थ : उनमें बैठकर, श्री देवचन्द्र जी पुन: खोज करने लगे। उन लोगों ने कहा कि हम परमात्मा के सम्बन्ध में सब कुछ जानते हैं। प्रभु का समरण करने के लिए हम जो मंत्र दे, उसे आप विश्वास के साथ ग्रहण कर लीजिए।

और चरचा करे दत्त की, लिया नाम सुमरन ।
पर दिल में कछू न आवहीं, क्योंए न पतीजे मन ॥ ३/६

अर्थ : वे सन्यासी, भगवान दत्तत्रेय की कथा करते थे। इन्होंने उनसे दीक्ष मंत्र ग्रहण कर लिया। परन्तु उनके उपदेश का कोई विशेष प्रभाव दिखाइ न दिया। उनके बाह्याचार और आडम्बरों में इनका मन बहुत दिन तक न रम सका।

कोइक दिन तहां रहे, फेर चले जागा और ।
बडे डिंभ कनफटे, चले गये तिन ठौर ॥ ३/७

अर्थ : कुछ दिन उनके संग रहकर अन्यत्र खोज करने निकल पडे। उन दिनों कनफटे साधुओं की बडी चर्चा थी। वे भी उन आडम्बर करनेवाले स्न्यासियों के समीप पहुंच गये।

वे राजगुरू कहावहीं, बोहोत चेले तिन के।
कच्छ देस ताय मानहीं, जाय पोहोंचे इन में ॥ ३/८

अर्थ : ये कनफटे राजगुरू कहलानेवाले संयासी थे। उस क्षेत्र में उनके बहुत शिष्य और सेवक थे। समग्र कच्छ प्रदेश में उन्हें सम्मान प्राप्त था। श्री देवचन्द्र जी भी उनके सत्संग में रहने लगे।

कोइक दिन तहां रहे, साख न होय अन्दर ।
पूछी चरचा तिनकी, कछु न पडे खबर ॥ ३/९

अर्थ : कुछ दिन वहां रहे भी, किन्तु साक्षी के अभाव में आत्मा संतुष्ट नहीं हुई। बहुत दिन उनकी चर्चा सुनने पर भी परमात्मा के सम्बन्ध में कुछ जानकारी सुलभ न हो सकी।

फेर वैरागी कापडी में, रहे कोइक दिन ।
वस्तु न देखी तिन में, परे इन्द्री वस मन ॥ ३/१०

अर्थ : फिर वे वैरागी कापडी साधुओं के सत्संग में गये। कुछ दिन रहकर उनसे चर्चा की। उनमें भी कोइ तत्व ज्ञान की बात दिखाई न दी। क्योंकि वे तो मन एवं इन्द्रियों के दास थे।

इन भांत मसजित में, मुल्ला की करी सोहोवत ।
तहां कछु न पावहीं, कोइक दिन रहे तित ॥ ३/११

अर्थ : इस प्रकार खोज करते करते मस्जिद में पहुंचकर मुल्ला से भी सत्संग किया। कट्टर शराअ में बंधे मौलवियों के बीच कुछ दिन रहकर भी उन्हें कुछ ज्ञान नहीं मिल सका।

और ब्राह्मण भेस कैइ, और भेष सब ठौर ।
खोजत ही फिरत रहे, मेहेनत करि अति जोर ॥ ३/१२

अर्थ : अनेक वेषों में सुसज्जित ब्राहमणों और अनेक रंग रूपधारि साधुओं के बीच खोज करते रहे। परमतत्व की खोज में इन्होंने अथक परिश्रम किया।


फिरते भुजनगर, आये तिन सहर में ।
तहां हरिदास जी रहे, भई सोहोवत तिन से ॥ ३/१३

अर्थ : कच्छ प्रदेश के अनेक शहरों गांवों में भ्रमण करते हुए भुजनगर आये। हरिदासजी भी वहीं रहते थे। उनसे पुन: मिलकर सत्संग होने लगा। 

वे थे राधा वल्लभी, सेवत कारज आतम ।
सेवा बंके बिहारी की, करे स्खीभाव धरम ॥ ३/१४


अर्थ : स्वामी हरिदासजी राधावल्लभी सम्प्रदाय के परम भक्त अनुयायी थे और केवल आत्म कल्याण के लिए सखी भावना से बांके बिहारी की सेवा करते थे।

रहे तिनकी सोहोवत में, देखी सेवा अति प्रेम ।
सांचा देखा तिन को, सेवत हैं अति नेम ॥ ३/१५

अर्थ : उनके संग रहकर श्री देवचन्द्र जी ने उनकी प्रेम सेवा को अति निकट से देखा। हरिदास जी में उन्हें सच्चे प्रेमी के दर्शन हुए। धर्म के नियमों का पूरा ध्यान रखकर वे सेवा किया करते थे।


जब रूत आवे गरमी की, तब सेवा तिन माफक ।
ठंडक करें हर भांत सों, आगा समे र्रुत ताकत ॥ ३/१६

अर्थ : जब गर्मी की त्रुतु आती तब उसके अनुसार ही हर तरह से प्रभु की सेवा में शीतलता का ध्यान रखते। वे पहले से ही त्रुतु का अनुभव लगाकर परमात्मा की सेवा का प्रबन्ध कर लेते ।

और जाडे की रूत मिने, गरमी का करे इलाज ।
अब ए वस्तु करों, चाहिएगी मुझे आज ॥ ३/१७

अर्थ : शीत त्रुतु में प्रभु प्रतिमा के लिए सब प्रकार से उष्णता की व्यवस्था करते। सेवा में उस दिन जिन वस्तुओं की आवश्यक्ता पडने की संभावना होती, उसका प्रबन्ध किया जाता था।

अस्नान करे दिन में, दोय चार वखत ।
जब रूत पलटे में चाहिए, गरमी सीत होय इत ॥ ३/१८

अर्थ : दिन में दो - चार बार शारीरिक पवित्रता के लिए वे स्नान अवश्य कर लेते। सेवा मौसम के परिवर्तन के साथ गर्मी - सर्दी कोई भी त्रुतु हो ।

तब उनको अस्नान का, फेर फेर वखत होय ।
यह सचवटी देख के, एसी करे न कोय ॥ ३/१९

अर्थ : शारीरिक पवित्रता के लिए उन्हें बार - बार स्नान करना पडता। एसी पवित्रता पूर्ण सेवा देखकर श्री देवचन्द्र जी ने विचार किया कि कोइ इस प्रकार सेवा धर्म का पालन नहीं करता।
















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