॥ (आत्मा एवं परमात्मा का संवाद) तथा तारतम का अवतरण ॥
सुनियो वाणी सुहागनी, हुती जो अकथ अगम ।
सो बीतक कहूं तुमको, उड जासी सब भरम ॥ १ ॥
रास कह्या कुछ सुनके, अब तो मूल अंकूर ।
कलस होत सबन को नूर पर नूर सिर नूर ॥ २ ॥
कथियल तो कही सुनी, पर अकथ न एते दिन ।
सो तो अब जाहेर भई, जो आग्या थें उतपन ॥ ३ ॥
मासूके मोहे मिल के करी सो दिल दे गुझ ।
कहे तू दे पड उतर, जो मैं पूछत हूं तुझ ॥ ४ ॥
तू कौन आई इत क्यों कर कह्हं है तेरा वतन ।
नार तू कौन खसम की द्रढ कर कहो वचन ॥ ५ ॥
तू जागत है कि नींद में, करके देख विचार ।
विध सारो या की कहो इन जिमी के प्रकार ॥ ६ ॥
अर्थात : हे सुहागिन - ब्रह्मात्माओं ! आप अपने प्रियतम के उन अलौकिक वचनों को सुनो, जो आज तक कहे नहीं गए। इन वाणी वचनों में उस अखंड परम अद्वैत मंडल परमधाम की लीला का वर्णन है, जहां कोई नहीं पहुंच सका। आत्मा की इस गाथा अर्थात आत्माओं की यह बीतक - व्रुतांत सुनकर सारे भ्रम तथा संदेह मिट जाएंगे।
श्री इन्द्रावती जी कहती हैं कि रास का वर्णन तो उन्होंने सदगुरू जी के मुखारविंद से सुन्कर किया परन्तु यह तथ्य तो वह परमधाम के अंकूर अथवा मूल सम्बंध होने के नाते कह रही हैं। समस्त शास्त्र पुराणों के ज्ञान मन्दिर के शिखर पर यह जाग्रुत बुद्धि का ज्ञान (तारतम वाणी) कलसवत प्रतिष्ठित होगा। यह इस प्रकार न्याय संगत है कि शास्त्रों का सार अर्थात शास्त्र ज्ञान की ज्योति (नूर) श्री रास में समाहित है, ्वही रास का नूर "प्रकास वाणी" में प्रगटित हुआ। अब कलस वाणी में वह नूर कलस रूप में सुशोभित है।
शास्त्र पुराणों की कथा एवं गाथाएं इस जगत में सुनने और सुनाने की परिपाटी तो चली आ रही है, परन्तु पूर्णब्रह्म अक्षरातीत की यह अकथ वाणी आज दिन तक न किसी ने कही और न ही सुनी। अब सतगुरू श्री धाम धनी की आज्ञा से यह अगम एवं अकथ वाणी श्री महामति द्वारा प्रगट हुई।
प्रियतम धनी मुझसे मिले और उन्होंने अपने ह्रदय के रहस्यमयी भेद मुझे बताए। तत्पश्चात उन्होंने कहा कि वह कुछ प्रश्न तुझसे पूछना चाहते हैं उसका उत्तर उन्हें दो।
प्रियतम धनी ने प्रश्न करते हुए पूछा तुम कौन हो ? इस जगत में क्यों आई हो ? तु्म्हारा मूल घर अथवा वतन कहां हैं ? तुम्हारे प्रियतम स्वामी कौन हैं, अर्थात तुम किस धनी (साहेब) की अर्धांगनी हो ? तुम इन प्रश्नों का उत्तर मुझे द्रढता पूरवक सोच विचार कर दो।
फिर यह भी विचार कर देखो कि तुम स्वपनावस्था में हो या जाग्रुत अवस्था में ? इस सारे जगत की वास्तविक्ता क्या है ? यह जगत किस प्रकार का है और यह संसार तुम्हें कैसा लगता है ?
सुनो पिया अब मैं कहूं तुम पूछी सुध मण्डल ।
ए कहूं मैं क्यों कर छल बल वल अकल ॥ १ ॥
मैं न पहचानो आपको ना सुध अपनो घर ।
पीऊ पहचान भी नींद में मै जागत हूं या पर ॥ २ ॥
ए मोहोल रच्यो जो मंडप सो अटक रह्यो अंत्रिक्ष ।
कर कर फिकर कई थके, पर पाई न काहुं रीत ॥ ३ ॥
जल जिमी तेज वाय को अवकास कियों है इंड ।
चौदे तबक चरों तरफों परपंच खडा प्रचंड ॥ ४ ॥
अर्थात: प्रियतमधनी ! इस जगत के विषय में तथा अन्य प्रश्न (मैं कौन आई इत क्यों कर) जो आपने पूछे उसका वर्णन किस प्रकार करूं ? वस्तुत: यह मायावी जगत छलबल एवं कुटिलता से भरा हुआ है। विवेक एवं बुद्धि का पग पग पर हरण करने वाला है। न तो मुझे अपने घर (मूल वतन) की खबर है और न ही मैं आपको तथा अपने आपको पहचानती हूं। केवल मैं इतना जनती हूं कि आप मेरे प्रियतम धनी हैं। यह तथ्य भी नींद की सी अवस्था में ही कह रही हूं क्योंकि आपके स्वरूप की पूरी पहचान नहीं है। अपने जाग्रुत होने का अभी मुझे इतना ही अहसास है।
इस जगत में जहां मैं आज हूं जिस रूप में हूं, की रचना बडी विचित्र है अर्थात इस जगत का जो मंडप रचा गया है, उसके न कोई थंभ (खम्भे) हैं न ही दीवर है और न कोई संध (जोड) है। यह अन्तरिक्ष (अधर) में लटका घूम रह है। इसके मूल की खोज करते रुशी मुनि थक गए, परन्तु किसी ने इसका पार (थाह) नहीं पाया।
पां च तत्व - प्रुथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश से मिलकर इस चौदे लोक ब्रह्मांड की रचना हुई। इस प्रकार इस ब्रह्मांड की दसों दिशाओं में प्रचंड प्रपंच का ही विस्तार दिखाई देता है।
उपरोक्त "प्रचंड प्रपंच" का अभिप्राय यह है कि साधारणत: यह संसार ऊपर से सीधा सरल एवं स्पष्ट दिखाई देता है, परन्तु इसका फैलाव (विस्तार) बिना मूल (आधार) के है। सुक्ष्म रूप से इस तथ्य पर विचार करने पर इसकी विचित्रता प्रगट हो जाती है। वस्तुत: इसके ऊपर शून्य और नीचे जल है। यह अंतरिक्ष (अधर) में लटक रहा है। इसका निर्माण पांच तत्व जैसा कि ऊपर कहा गया है, से हुआ है। यदि इन पांचो तत्व प्रुथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश को अअलग कर देखा जाए तो उनका अन्त ही नहीं परन्तु जब इन पाम्चो को एकत्रित करके देखा जाए तो यह संसार रचा हुआ तथा टिका हुआ द्रष्टि गोचर होता है, जबकि इन पांचो तत्वों में एक तत्व भी स्थिर नहीं अत: यह "प्रचंड प्रपंच" है।
ए कहूं मैं क्यों कर छल बल वल अकल ॥ १ ॥
मैं न पहचानो आपको ना सुध अपनो घर ।
पीऊ पहचान भी नींद में मै जागत हूं या पर ॥ २ ॥
ए मोहोल रच्यो जो मंडप सो अटक रह्यो अंत्रिक्ष ।
कर कर फिकर कई थके, पर पाई न काहुं रीत ॥ ३ ॥
जल जिमी तेज वाय को अवकास कियों है इंड ।
चौदे तबक चरों तरफों परपंच खडा प्रचंड ॥ ४ ॥
अर्थात: प्रियतमधनी ! इस जगत के विषय में तथा अन्य प्रश्न (मैं कौन आई इत क्यों कर) जो आपने पूछे उसका वर्णन किस प्रकार करूं ? वस्तुत: यह मायावी जगत छलबल एवं कुटिलता से भरा हुआ है। विवेक एवं बुद्धि का पग पग पर हरण करने वाला है। न तो मुझे अपने घर (मूल वतन) की खबर है और न ही मैं आपको तथा अपने आपको पहचानती हूं। केवल मैं इतना जनती हूं कि आप मेरे प्रियतम धनी हैं। यह तथ्य भी नींद की सी अवस्था में ही कह रही हूं क्योंकि आपके स्वरूप की पूरी पहचान नहीं है। अपने जाग्रुत होने का अभी मुझे इतना ही अहसास है।
इस जगत में जहां मैं आज हूं जिस रूप में हूं, की रचना बडी विचित्र है अर्थात इस जगत का जो मंडप रचा गया है, उसके न कोई थंभ (खम्भे) हैं न ही दीवर है और न कोई संध (जोड) है। यह अन्तरिक्ष (अधर) में लटका घूम रह है। इसके मूल की खोज करते रुशी मुनि थक गए, परन्तु किसी ने इसका पार (थाह) नहीं पाया।
पां च तत्व - प्रुथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश से मिलकर इस चौदे लोक ब्रह्मांड की रचना हुई। इस प्रकार इस ब्रह्मांड की दसों दिशाओं में प्रचंड प्रपंच का ही विस्तार दिखाई देता है।
उपरोक्त "प्रचंड प्रपंच" का अभिप्राय यह है कि साधारणत: यह संसार ऊपर से सीधा सरल एवं स्पष्ट दिखाई देता है, परन्तु इसका फैलाव (विस्तार) बिना मूल (आधार) के है। सुक्ष्म रूप से इस तथ्य पर विचार करने पर इसकी विचित्रता प्रगट हो जाती है। वस्तुत: इसके ऊपर शून्य और नीचे जल है। यह अंतरिक्ष (अधर) में लटक रहा है। इसका निर्माण पांच तत्व जैसा कि ऊपर कहा गया है, से हुआ है। यदि इन पांचो तत्व प्रुथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश को अअलग कर देखा जाए तो उनका अन्त ही नहीं परन्तु जब इन पाम्चो को एकत्रित करके देखा जाए तो यह संसार रचा हुआ तथा टिका हुआ द्रष्टि गोचर होता है, जबकि इन पांचो तत्वों में एक तत्व भी स्थिर नहीं अत: यह "प्रचंड प्रपंच" है।