।। वैराट की जाली ।।



वैराट फैर उलटा, मूल हे आकास ।
डारें पसरी पाताल में, यो कहे वेद प्रकास ।। 


फल डार अगोचर, आडी अतंराए पाताल ।

वैराट वेद दोउ कोहेडा, गूंथी सो छल की जाल ।।

विध दोउ देखिए, एक नाभ दूजा मुख ।
गूथी जाली दोउ जुगते, मान लिए सुख दुख ।।

अर्थात: चौदह लोक - इस ब्रह्मांड की गति ही उलटी हैं। इस संसार रुपी वृक्ष का मूल अथवा उत्पत्ति स्थान और जडे तो उपर अक्षर ब्रह्म में हैं तथा पत्ते और डालियों का फैलाव नीचे पाताल की ओर हैं। इस तथ्य की घोषणा वेदों ने स्पष्ट रुप से की हैं।

इस संसार रुपी वृक्ष के फल और शाखाएं अगोचर हैं वे दिखाई नहीं देती। आकाश से लेकर पाताल तक इसका अन्तराल हैं। वैराट एवं वेद दोनों एक एसी गुन्थी अथवा उलझन के समान हैं, जिसे स्वंय माया ने निर्मित किया हैं। अत: इन्हें जाली वत - रहस्यमयी उलझन कहा गया हैं।

वेद एवं वैराट इन दोनों की उत्पत्ति जिस प्रकार से हुई, उसकी स्पष्टता इस प्रकार हैं कि श्री नारायण जी कि नाभि कमल से ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर वैराट की सृष्टि की और उन्होने ही अपने चतुर्मुख से चारों वेदों का गायन किया। इस प्रकार विधि पूर्वक बडी युक्ति से संसार जाली रुप से गूंथ लिया गया।

यह जाली अथवा रहस्यमयी उलझन दो प्रकार की हैं एक तो यह विश्व अर्थात विस्तृत वैराट हैं और दूसरा, वेद का अथाह कर्म काण्ड। जीव इनके नियमों की जाली में इस प्रकार बंधा रहता हैं कि वहां से निकल नहीं पाता। इस प्रकार संसार के समस्त प्राणी दुख सुख को अपना भाग्य मान रहे हैं। 

आंकडी एक इन भांत की, बांधी जोर सो ले ।
आतम झूठी देखही, सांची देखे देह ।।

करे सगाई देह सुं, नाहीं आतम सो पहचान ।
सनमंध पाले देह सों, ए लई सबो मान ।।

नहवाए चरचे अरगजे, प्रीते जिमावे पाक ।
सनेह करके सेवही, पर नजर बांधी खाक ।।

अर्थात: इस जगत के मारावी जाल ने बंधन की गांठ को इस प्रकार जोर से बांधा हैं, कि मानव इसे सत्य एवं सुखद समझ कर आत्मा एवं उसके मूल घर परमधाम को असत्य मानने लगा हैं और इसके विपरीत झूठी देह और जगत को सत्य माने बैठा हैं।

इस संसार के समस्त लोग शारीरिक सम्बंध को ही सच्चा मानते चले जा रहे हैं। आत्मा की पहचान कोई भी नहीं करता। क्षण भंगुर शरीर के झूठे सम्बंधो को स्वीकार कर उन्हें पालन करने में सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं क्योंकि देह को ही उन्हों ने सर्वस्व मान लिया हैं।

इस शरीर पर चंदन का लेप लगाकर इसे बार बार धोते हैं और सुगन्धित इत्र आदि लगाते हैं फिर अच्छे अच्छे भोजन पका कर बडे प्यार से इसे पुष्ट करते हैं और इसकी सुरक्षा हेतु अनेक प्रयास करते हैं। वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि उनकी यह द्रष्टि (लक्ष्य) तो नश्वर मिट्टी की काया - खाक से ही बांधी हैं।

जीव गया जब अंग थे, तब अंग हाथों जाले ।
सेवा जो करते स्नेह सों, सो सम्बंध एसा पाले ।।

हाथ पांव मुख नासिका, सब सोई अंग के अंग ।
तिन छूत लगाई घर को, प्यार था जिन संग ।।

अंग सारे प्यारे लगते, खिन एक रहयो न जाए ।
चेतन चले पीछे सो अंग, उठ उठ खाने धाय ।।

छोड सगाई आतम की, करे सगाई आकार ।
वैराट कोहेडा या विध उलटा, सो कई प्रकार ।।

अर्थात: जब शरीर से मूल तत्व - जीवात्मा निकल जाति हैं तब (सगे सम्बंधी) अपने ही हाथों शरीर को अग्नि में झोंक कर दाह संस्कार करते हैं। जिस शरीर की इतने स्नेह से सेवा शुश्रुसा करते थे, उसी को जलाकर खाक कर देते हैं। इस प्रकार लोग अंतत: एसा अस्थायी एवं निष्ठुर सम्बंध निभाते हैं।

वस्तुत: शरीर से प्राण निकलने के पश्चात भी हाथ पांव, नेत्र नासिका, कान आदि ये सारे अंग तो यथावत् ही रहते हैं किन्तु जिनके साथ इतना लगाव और प्यार था, वे अंग, प्राण निकलते ही घर के लिए अछूत और अपवित्र वन जाते हैं।

जिस शरीर का वियोग घर वाले - सगे सम्बंधी क्षण भर के लिए भी नहीं सहन कर सकते थे तथा अपने शरीर से भी अधिक प्रिय मानते थे, वही शरीर निष्प्राण होने के बाद उनके लिए भय का कारण बन जाता हैं। उन घर वालों को एसा प्रतीत होने लगता हैं कि यह मृत शरीर अभी उठकर मानों उन्हें खा जाएगा। एक क्षण के लिए भी उस शरीर को रखना उनके लिए असम्भव हो जाता हैं। सारांश यह कि लोग, आत्मा के सच्चे सम्बंध की अवहेलना कर शरीर मात्र से ही सम्बंध जोडे रहते हैं। इस प्रकार इस विश्व में अनेक प्रकार की विपरीत उलझाने वाली रीतियां हैं जिनसे मनुष्य सर्वदा भ्रमित रहता हैं।

एक देखो ए अचम्भा, चाल चले संसार ।
जाहेर हैं ए उलटा जो, देखिए कर विचार ।।

सांचे को झूठा कहे, झूठे को कहे सांच ।
सो भी देखाउ जाहेर सब, रहे झुठ रांच ।।

आकार को निराकार कहे, निराकार को आकार ।
आप फिरे सब देखे, फिरते असत यो निरधार ।।

मूल बिना वैराट खडा, यों कहे सब संसार ।
तो ख्वाब के जो दम आपे, ताए क्यों कहीए आकार ।।

आकार न कहीए तिन को, काल को जो ग्रास ।
काल सो निराकार हैं, आकार सदा अविनाश ।।

अर्थात: यह वैराट सम्पूर्ण संसार एक आश्चर्य जनक खेल तमाशा हैं। विश्व के समस्त प्राणी - मानव) उलटी चाल चलने में मग्न हैं। यदि अन्त: मन में विचार किया जाए और विवेक द्वारा परखा जाए तो संसार का उलटा चक्र स्पष्ट: दिखाई देने लगेगा।

वस्तुत: इस संसार में सत्य आत्मा को असत्य और उसके मूल उद्गम परमधाम को काल्पनिक समझा जाता हैं जबकि स्वप्नवत् झूठे पिंड - ब्रह्मांड को सत्य (सच्चा) मानते हैं। यह आश्चर्य जनक तमाशा कि लोग असत्य जगत में किस प्रकार तन्मयता एवं एक रस होकर खेल रहे हैं अपने आप में प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

अखंड रुप आत्मा जो अस्तित्व वाली हैं उसे निराकार कहते हैं, जगकि शरीर मिथ्या होने के कारण निराकार हैं उसे आकार कहते हैं। सत्य तो यह हैं कि जिस मनुष्य का सिर (मस्तक) चकरा रहा हो, एसे काल के चक्कर में घूमने वाले को सब कुछ अर्थात संसार की प्रत्येक वस्तु घूमती दिखाई देती हैं। इसी प्रकार अज्ञान में भ्रमित लोग सब कुछ उलटा समझ रहे हैं।

यह वैराट संसार बीना आधार अथवा मूल के खडा हैं। इस तथ्य को समस्त जगत के प्राणी स्वीकार करते हैं। अत: शरीर अपने आपमें भ्रम अर्थात प्रतीति मात्र हैं तो फिर उसे आकार वाला कैसे कह सकते हैं ?

जिस वस्तु का निश्चित रुप से नाश होना सिद्ध हो जाए, तो उसे साकार नहीं कहना चाहिए। जब काल (मृत्यु शक्ति) स्वयं हो निराकार हैं तो उसके बंधन में आने वाला शरीर आकार वाला कैसे हो सकता हैं ? वस्तुत: आकार अखंड स्वरूप तो सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा हैं।

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